कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
स्मृतियाँ
"तो इत्ती-सी बात थी?"
"और क्या?"
मैं हंस पड़ा और वह भी।
एक बहुत ऊंचे वृक्ष पर कहीं चील का घोंसला था, उसके ऊपर नीला आसमान और इधर-उधर बिखरे कहीं-कहीं सफेद मटमैले बादल !
आज भी कभी सोचता हूं तो सब सपना-सा लगता है। लगता है-वह सब घटित नहीं हुआ था। कभी-कभी बहुत कुछ हम यों ही सोच लेते हैं न ! और चाहे या अनचाहे, जाने या अनजाने, इतनी बार दोहराते हैं कि सब यथार्थ-सा लगने लगता है।
मेरे हाथ में अभी भी वह नीला कागज़ है, और उसके साथ रंग-बिरंगा पारदर्शी पतला लिफ़ाफ़ा-जो चीजें छूट गईं, जिनसे अब कोई वास्ता नहीं, वे ही बार-बार घेरकर क्यों खड़ी हो जाती हैं? बार-बार मैं क्यों परेशान हो उठता हूं और...
पत्र बंद करके मैं कुछ और सोचने लगता हूं। मेरी आंखों के आगे तब एक दूसरा ही चित्र घूमने लगता है-
चंदन-सा चेहरा, गहरे पांगर के रंग के बाल, दूर तक फैली बड़ी-बड़ी दो कजरारी आंखें ! इतनी बड़ी आंखें भी क्या किसी की हो सकती हैं?
मेरा ध्यान सहसा उस ओर गया तो चौंक पड़ा। वे दो बड़ी-बड़ी आंखें अपलक मेरी ही ओर देख रही थीं। मुझे उनका इस तरह देखना अटपटा-सा लग रहा था। इतने बड़े समारोह में लोग क्या कहेंगे? लोग क्या कहेंगे?' मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी कमज़ोरी रही है, जो अब तक है।...मैंने उड़ती निगाहों से उसकी ओर फिर देखा, वह अब तक भी उसी तरह देखे जा रही थी...।
समारोह के बाद घर आया तो बड़ी देर तक वे दोनों आंखें मेरा पीछा करती रहीं। लग रहा था जैसे मेरी पीठ पर धधकते अंगारे की तरह चिपक गई हैं।
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